एक 20 वर्षीय अफगानी कलाकार ने अपनी पहचान छिपाये रखने की शर्त पर बताया कि अफगानिस्तान की औरतों ने हमेशा ही तालिबानी शासन के अत्याचारों को सहा। उन्हें इस्लामी कानूनों के ‘तालिबानी-रूप’ (जो इस्लामीशिक्षाओं के विरूद्ध हैं) को मानने के लिए मजबूर किया गया और उनके मूल अधिकारों जैसे घूमने की स्वतंत्रता, शिक्षा तक पहुंचने और अपने मनमुताबिक कपड़े पहनने से रोका गया। इस महिला कलाकार ने दुःखी मन से आगे बताया कि उसके जैसी हजारों लड़कियों की आजाद-अफगानिस्तान में परवरिश हुई जो तालिबानी-शासन से मुक्त था।
उसे डर है कि लोकतंत्र की मिठास का स्वाद लेने के बाद इस अंधेरे भरे काल (तालिबानी शासन) के वापस लौट आने के कारण उसके जैसी जवान लड़कियों को आत्महत्या करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। यहां, भारत में जिनकी उम्र 30 वर्ष के आसपास है, ने अपने बचपन में ‘काबुलीवाला’ शीर्षक से एक कहानी पढ़ी होगी जिसमें काबुल का रहने वाला एक शख्स, भारत में एक छोटी सी लड़की को मुफ्त में सूखे मेवे देता है, क्योंकि वह लड़की उसे अपने बेटी की याद दिलाती है। यह बात निश्चित है कि उस कहानी को जानने वाले ये कभी नहीं चाहेंगे कि काबुलीवाले की वह बेटी तालिबानी शासन में पले-बढ़ें।।
जल्दबाजी में अफगानिस्तान से अमरीकी फौजों का वापस लौटना और उस देश को आतंकवादी ताकर्तों के सहारे छोड़ देने के कारण, पाकिस्तान समर्थित तालिबानियों ने मासूम लोगों पर जुल्म ढाए व सैंकड़ो की संख्या में अफगानी सुरक्षा बलों के सैनिकों को मारते हुए काबुल समेत पूरे देश को कुछ ही हफ्तों में अपने कब्जे में ले लिया। हजारों की संख्या में वहां के मासूम नागरिक देश को छोड़कर जाने की गरज से काबुल-एयरपोर्ट पहुंचने लगे क्योंकि तब तक तालिबानी-लड़ाकों ने राष्ट्रपति महल को अपने कब्जे में ले लिया था।
तालिबानियों की नृशंसता से उत्पन्न डर का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक दर्जन से अधिक अफगानियों ने एक चलते हुए अमरीकी हवाई-जहाज के पहियों के पास स्थित खुली जगह में पनाह लेने की कोशिश की। उस जहाज के आसमान में उड़ने के कुछ क्षणों बाद ही उनमें से तीन लोगों को आसमान से नीचे गिरते हुए तस्वीरों में कैद किया गया। बाकी बचे लोगों का, बर्फ जमने तापमान से नीचे के तापमान को सहने एवं ऑक्सीजन के अभाव में क्या हाल हुआ होगा, इसके बारे में सोचना भी फिजूल होगा। यह जानते हुए कि हवाई-जहाज के पहियों के पास की खुली जगह में बैठने से मरने की आशंका बनी रहती है, वे जहाज से चिपटे रहे क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि वे तालिबानियों के अत्याचारी शासन से निजात पा सकेंगे।
अफगानिस्तान में तालिबानियों के उद्भव के साथ ही भारत तथा विश्व के अन्य भार्गों में संभावित ‘इस्लामिक-राज’ की स्थापना की यह सुगबुगाहट तेज़ होने लगी है कि यहां मुसलमानों को सुरक्षित पनाहगाह’ मिल पाएगी। भारतीयों ने जल्द ही पुल्तिज़र पुरस्कार विजेता भारतीय फोटो पत्रकार दानिश सिद्धीकी की अफगानिस्तान में हुई मौत से सबक सीख लिया है। कुछ ही हफ्ते पहले अफगानिस्तान में हुई उसकी हत्या पर भारत में कईयों ने इस बात की पैरवी की थी कि दानिश की मौत अफगानिस्तान के स्पिन बोल्डक क्षेत्र में राष्ट्रीय सेना और तालिबानी लड़ाको के बीच हुई लड़ाई के दौरान ‘कवरेज’ करते समय हुई थी।
बाद में मिली जानकारी के अनुसार उसकी पहचान होने पर, तालिबानियों ने बड़ी नृशंसता से उसकी हत्या कर दी थी। सुरक्षित पनाहगाहों’ के इस्लामी-सिद्धांत की मानो धज्जियां उड़ा दी गई। ‘इस्लामिक-राज’ के नाम पर आतंकी संगठनों द्वारा क्या कुछ किया जा सकता है, इसे दुनिया नहीं जानना चाहेगी क्योंकि कुछ वर्षों पहले SIS के रूप में उनके पास इराक, सीरिया में इसके अनेकों उदाहरण मौजूद हैं। इस गंभीर मौके पर यह सवाल पूछने की ज़रूरत है कि पाकिस्तान द्वारा समर्थित ISIS जैसे एक और संगठन को क्या दुनिया झेल पाएगी?
सन् 1990 के दशक में अफगानिस्तान में सोवियत संघ के पतन के बाद और तालिबानियों द्वारा सत्ता पर कब्जा करने के बाद कश्मीर में आतंकी गतिविधियों में एकदम से बढ़ोतरी देखी गई थी। सोवियत संघ के इस पूरे दृश्य से ओझल होने के बाद व अमरीका द्वारा ‘तीसरी-पार्टी’ के रूप में भूमिका निभाने की सूरत में, कुछ तालिबानी लड़ाकों ने अपना ध्यान कश्मीर की तरफ मोड़ दिया तथा कछ ही महीनों में इसे जहन्नम में बदल दिया जिसके दुष्परिणामों को कश्मीरियों के चेहरों पर आज भी देखा जा सकता है।
भारत की मुख्य भूमि में रहने वाले मुसलमान तालिबान जैसे आतंकी संगठनों की हिंसक प्रकृति की सच्चाई को हमेशा जानते थे, ये तालिबानी जम्मू व कश्मीर की सीमा के इस ओर किसी भी प्रकार का प्रभाव जमाने में असफल साबित हुए। कुछ आतंकवादी-संगठन व कम जानकार लोग तालिबान के इस उत्थान का जश्न मना रहे हैं, बहरहाल,उन्हें इस ‘कथानक’ के जाल में फंसने से पहले उन अफगानिर्यो की,खासतौर पर यहां की औरतों के निजी अनुभओं पर एक नज़र डालनी चाहिए जो 90 के दशक में तालिबानी-शासन के अधीन रहने के लिए मजबूर थीं।
लेखक – अरमान